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सीढ़ियाँ दर सीढ़ियाँ / मीना अग्रवाल

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एक दिन
अपने ही विचारों में खोई
बैठी थी अकेली
तभी अचानक
प्यारी सखी चमेली आई मेरे पास
और बोली सुन ओ सहेली !
बता मेरी एक साधारण-सी पहेली,
यह समाज और
समाज के सुसंस्कृत लोग
क्यों हो गए हैं संकुचित ?
क्यों खोए हैं अपने में ?
क्यों हैं सभी कुंठाग्रस्त ?
या फिर क्यों हैं एक-दूसरे से त्रस्त ?
उत्तर साधारण-सा है, बहन !
आज किसी को
किसी के दुख से
न तो है कोई सरोकार,
न कोई मतलब और न कोई दरकार,
कोई नहीं है सुखी
दूसरे के सुख से,
तो किसी के दु:ख से भी नहीं हैं दुखी,
शायद होते हैं ऐसे ही निर्विकार लोग
जिन्हें किसी से नहीं होती है प्रीत
जो नहीं होते हैं
किसी के शत्रु
और न किसी के मीत !
सखी की बात सुनकर
मन में विचारों को गुनकर
मैंने समझाया उसे
जीने का मतलब---
सखी रोली !
बड़ी है तू भोली
क्या नहीं जानती इतना
इसमें है अपनी भलाई,
क्योंकि इस जग में हरेक उठने वाले को
मिलती है एक चुनौती,
उसके लिए यह
होती है परीक्षा की घड़ी
कि उसमें कितना है धैर्य और कितना आक्रोश,
या फिर कितना है रोष,
इस चुनौती को
जो करता है स्वीकार और नहीं करता तकरार
पाता है वह एक दिन
ऊँचाई का सर्वोच्च शिखर
जहाँ पहुँचना असम्भव नहीं तो आसान भी नहीं !
मेरी सलोनी-सी प्यारी-सी सखी !
मत हो उदास,
बात को ध्यान से
समझ, सुन और गुन
मत रख किसी से आस,
न कर किसी पर विश्वास,
निरंतर बढ़ती रह आगे
चढ़ती रह जीवन की सीढ़ियाँ
सीढ़ियाँ दर सीढ़ियाँ,
नहीं वह दिन दूर
पहुँचेगी जब तू अंतिम सोपान पर
न होगा वहाँ स्वार्थ
न पीड़ा, न त्रास,
जहाँ मिलेगी नई दिशा
नई ख़ुशी और
मिलेगा नया सवेरा
नया उल्लास !