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सीढ़ियाँ / पंकज सुबीर
Kavita Kosh से
अक्सर झाँकता हूँ मैं
अपने अंदर
और हर बार देखता हूँ
उन सीढ़ियों को
जो मेरे ही अंदर उतर कर जाती हैं
जाने कहाँ
दूर बहुत दूर
चाहता हूँ हर बार उतर जाना
इन सीढ़ियों से होकर
अपने ही अंदर
फिर डर जाता हूँ
न जाने क्या हो वहाँ
मेरे अंदर?
कहीं ऐसा न हो
कि अंदर हो जाए मुलाक़ात
मेरी अपने आप से ही
और करना पड़े सामना
मुझे अपने ही प्रश्नों का
कहाँ से लाऊँगा उत्तर
उन प्रश्नों के
इसीलिए ठिठक जाता हूँ
हर बार
और बंद कर देता हूँ
वो दरवाज़ा
जिसके पार हैं वो सीढ़ियाँ
मेरे अंदर की
जो जाती हैं जाने कहाँ
दूर बहुत दूर।