भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
सीढ़ियाँ / सुकान्त भट्टाचार्य
Kavita Kosh से
हम सीढ़ियाँ हैं
रोज़ हमें रौंदते हुए
तुम चढ़ते हो ऊँचाइयों की ओर
और पलट कर देखते भी नहीं पीछे
हमारी रोज़-रोज़ लहूलुहान होती छातियाँ
बिछी हुई तुम्हारे पैरों के नीचे ।
पता है तुमको भी
तभी तो कालीनों में छुपा कर
रखना चाहते हो हमारे सीनों के जख़्म
पर्दा डालना चाहते हो अपने ज़ुल्मों के निशान पर
और पहुँचने नहीं देना चाहते हो दुनिया के कानों तक
अपने गर्वीले पैरों की जुल्म ढाती आहटों को ।
लेकिन हम जानते हैं
इस दुनिया से हमेशा के लिए छुपा नहीं रहेगा
हमारी देह पर तुम्हारे पैरों का आघात ।
बादशाह हुमायूँ की तरह
एक दिन फिसलेंगे तुम्हारे भी पैर ।
मूल बंगला से अनुवाद : नील कमल