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सीढि़यों का भँवर / शिवशंकर मिश्र
Kavita Kosh से
बात जो सब से जरूरी है,
सब बहस के बावजूद
छोड़ दी जाती अधूरी है!
आँख का चश्मा चढ़ा है नाक पर,
नाक छूती आ रही नीचे अधर,
कब्र में जीने, अगोचर
सीढि़यों का तेज, अंतर्मुख भँवर ;
और हर दो कब्र की
दो कदम की सिर्फ दूरी है!
बैठकर, मिलकर, कहीं पर खड़े होकर,
बात के जरिए उठा देना लहर,
बदल देना घड़ी भर में विश्वो को, फिर
खुद बदल जाना सभा से लौटकर ;
पंक्तियॉं बँधती रहीं, अब भी वही
धँस रही पेटों में छूरी है!