भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

सीता: एक नारी / चतुर्थ सर्ग / पृष्ठ 4 / प्रताप नारायण सिंह

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

यद्यपि भ्रमण-सुख अधिकतम होता पिया के संग ही
लेकिन प्रजापालन-नियम देता उन्हें अनुमति नहीं

थी हो चुकीं तैयारियां सब पूर्ण जाने के लिए
अति उल्लसित थी मैं नवल आनंद पाने के लिए

लक्ष्मण प्रतीक्षारत खड़े, अनुपस्थिति थी राम की
छवि साथ लेकर, चाहती जाना, नयन अभिराम की

है रुद्ध कर देती सदा लोकेषणा, कामेषणा
अब तो प्रजा का कार्य ही उनके लिए सबसे बड़ा

संभव नहीं अति देर तक था राह उनकी देखना
वन भ्रमण के उपरांत संध्या तक मुझे था लौटना

अब तो मुझे अविलम्ब ही प्रस्थान करना चाहिए
सौमित्र, रथ औ’ सारथी कब से खड़े मेरे लिए

पर आज लक्ष्मण का हृदय क्यों दीखता अति क्लांत है
मुख मलिन, ऐसा लग रहा भय से किसी आक्रांत है

हैं आज वे प्रस्थान को प्रस्तुत नहीं, यूँ लग रहा
अतिशय शिथिल, ज्यों भार उन पर आ पड़ा कोई महा

हैं किन्तु वे तैयार, होगा भ्रमित मेरा चित्त ही
हर कार्य होता लखन का सिय-राम-हर्ष निमित्त ही

चौदह बरस श्रीराम की सेवा तपस्या सी रही
पर आज तक आलस्य किंचित भी दिखाया था नहीं