सीता: एक नारी / चतुर्थ सर्ग / पृष्ठ 9 / प्रताप नारायण सिंह
मैं हूँ विवश अति आज ढ़ोने के लिए इस पाप को
आज्ञा मिली है लौट जाऊँ छोड़ कर मैं आप को
साम्राज्य की सीमा परे, वनवास करने के लिए
चिरकाल तक वन में अकेले ही विचरने के लिए
लोकापवादों ने किया अवधेश का मन ग्रस्त है
कोशल-जनों की रूढ़ियों से हृदय उनका त्रस्त है
हैं बाध्य कोशल-नीतियों का मान रखने के लिए
अतिशय विवश हैं आपका परित्याग करने के लिए
जो मेघ था उर पर घिरा वह फूटकर झरने लगा
मन, प्राण में अति दग्ध, तापित ज्वाल सा भरने लगा
मैं दे चुकी थी सति-परीक्षा सकल जग के सामने
स्वीकार मुझको कर लिया था उस समय श्रीराम ने
क्या अब नहीं पर्याप्त वह निर्दोष होने के लिए
भेजी गई वन, कौन सा अब पाप धोने के लिए
क्या राम के मन में कहीं संशय अभी भी पल रहा
संदेह की बड़वाग्नि में क्या हृदय उनका जल रहा
हैं प्राण-प्रिय पतिदेव, मैं अर्धांग उनको मानती
पर आज ऐसा लग रहा किंचित नहीं मैं जानती
यदि राम के मन को कुटिल संदेह ने था धर लिया
आधान निज संतान का फिर क्यों भला मुझमें किया