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सीता: एक नारी / तृतीय सर्ग / पृष्ठ 7 / प्रताप नारायण सिंह

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अपरुपता तो है स्वयं ही व्याधि अपने आप में
कुंठा स्वयं गलती, गलाती और को निज ताप में

सुख, शान्ति, वैभव दूसरों का चाहता है वह कहाँ
जो व्यक्ति निज कमजोरियों से ही सदा कुंठित रहा

रघुवंश को निज ताप, कुंठा से गला दी मंथरा
सुख देख मेरा, राम का, हिय कष्ट से उसका भरा

ईर्ष्या हुई थी प्रस्फुटित हिय मध्य ले ज्वाला घनी
वनवास के अभिशाप का कारण हमारे जो बनी

दुःख पूर्ण जीवन देखना ही नीच मन की वृत्ति है
बस छटपटाहट अन्य की, उनके अहम की तृप्ति है

श्रीराम के अभिषेक से अतिशय व्यथित वह आज है
उसको उतरता दीखता वर्चस्व का अब ताज है

अस्तित्व अपना आज उसको भँवर में है दीखता
पर सहज छोड़ेगी नहीं निज दंभ-पूर्ण वरिष्ठता

कोई बदल सकता नही है मंथरा के भाग्य को
पर मंथरा है बदल सकती राम के इस राज्य को

हैं मंथरा के कुब्ज पर हँसते अयोध्याजन अभी
कुब्जा हँसेगी, कुब्ज कर सम्पूर्ण जनता को कभी

उसका समर्पण मात्र कैकेई भरत के प्रति यहाँ
क्यों मोह होता अवध से, पारंपरिक दासी कहाँ

है स्वार्थ का वटवृक्ष ढँककर हृदय को उसके खड़ा
श्रीराम-सिय के शील से भी स्वार्थ उसका है बड़ा