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सीता: एक नारी / द्वितीय सर्ग / पृष्ठ 1 / प्रताप नारायण सिंह

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मेरे लिए जो था प्रतीक्षित वह समय भी आ गया
रण बीच रावण बन्धु-बांधव के सहित मारा गया

कम्पित दिशाएँ हो उठीं जयघोष से अवधेश के
अविछिन्न हो भू पर पड़े थे शीश दस लंकेश के

था मुक्ति का नव सूर्य निकला पूर्व के आकाश में
शीतल समीरण बह चला, नव-सुरभि भरता श्वास में

हरि से मिलन की कल्पना से, हृदय आह्लादित हुआ
मन दग्ध करता अनवरत जो ताप, वह बाधित हुआ

वे धमनियाँ जो सुप्त थीं, उनमें रुधिर बहने लगा
मन पर खड़ा था वेदना का मेरु, वह ढ़हने लगा

अपने अनागत का सुनहला रूप मैं गढ़ने लगी
नूतन उमंगों से भरी, हरि राह मैं तकने लगी

पर प्रभु स्वयं आए नहीं मुझको लिवाने के लिए
कपि-श्रेष्ठ को अनुचर सहित भेजा बुलाने के लिए

यह जानकर उत्साह सब मेरा तुरत खोने लगा
फिर एक नव अज्ञात भय मन में उदित होने लगा

अबला कहाने का कदाचित अर्थ होता है यही
अज्ञात भय से सर्वदा नारी यहाँ शंकित रही

बलहीनता तन की हृदय पर सतत आरोपित हुई
भयभीत मन में नित्य शंकाएँ कई पोषित हुईं