सीता: एक नारी / द्वितीय सर्ग / पृष्ठ 4 / प्रताप नारायण सिंह
थे केश मंडित पुष्प से, अंजन नयन में भर रहे
था स्वर्ण कुंडल कर्ण में, गुंजन नुपुर थे कर रहे
बहु-भाँति सज्जित पालकी थी किंतु मैं पैदल चली
मन में तथा मानस पटल पर मच रही थी खलबली
जाती जहाँ तक दृष्टि, दिखता शीश चारो ओर था
कपि, नर, निशाचर का निरन्तर तीव्र उठता शोर था
मैं चाहती थी मिलन हो, प्रिय-प्राण से एकांत में
संवाद के कुछ ज्वार से थे उठ रहे उर प्रान्त में
जितने दिनों तक दूर अपने राम से थी मैं रही
बनकर समय अब धुन्ध अपने बीच था छाया वही
अन्यान्य लोगों की उपस्थिति में हृदय खुलता नहीं
संकोच, लज्जा बीच अंतर्भाव है घुलता नहीं
एकांत ही प्रिय-प्राण का हिय जानने को चाहिए
निर्जन जगह उपयुक्त होता, आज मिलने के लिए
मुझको नहीं दुर्जेय राज राम से मिलना वहाँ
औ' असुर-भंजक देव से भी था मुझे मिलना कहाँ
मेरे नयन तो खोजते थे प्राण-प्रियतम राम को
मैं चाहती थी देखना अपने पुरुष अभिराम को
थे जनकपुर की वाटिका में राम जो मुझको मिले
मन मध्य, जिनको देखकर, तत्क्षण कई उपवन खिले