सीता: एक नारी / द्वितीय सर्ग / पृष्ठ 7 / प्रताप नारायण सिंह
रण में विजय से तो अधिक अभिनंदिनी कुछ भी नहीं
है वीरता खुद आज अभिनन्दन हमारा कर रही
जयकार मेरा कर रहा वैकुण्ठ औ' भू-प्रान्त है
लेकिन खुशी के इन क्षणों में भी नहीं मन शांत है
अपहृत हुई निज प्रियतमा के मिलन से भी मन नहीं-
हर्षित हुआ, है चुभ रहा कुछ शूल सा उर में कहीं
सीता नहीं मेरे लिये है आज रघुकुल कामिनी
ज्यों कांति खोकर व्योम से भू पर गिरी हो दामिनी
कैसे बनेगी, पर-पुरुष-घर जो कभी नारी रही-
रधुवंश की फिर कुल-वधू, स्वीकार यह होगा नहीं
वर्जित हुआ है आज जिसका स्पर्श भी मेरे लिये
अर्धांगिनी कैसे करूँ स्वीकार मैं तुमको प्रिये
यद्यपि नही संदिग्ध है सिय की अखंड पवित्रता
तप जनित अतुलित तेज को भी मैं तुम्हारे जानता
पर लोक तो चलता नही मेरे-तुम्हारे ज्ञान से
जो प्रस्फुटित, संपृक्त हिय के प्रेम के प्रतिदान से
जन-मान्यताएँ, नीतियाँ कोशलपुरी की रोकतीं
स्वीकारने की ये तुम्हे, मुझको न देतीं अनुमती
फिर से तुम्हे मैं पा सकूँगा ज्ञात है मुझको नहीं
क्या इस महासंग्राम का परिणाम होना था यही