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सीता: एक नारी / प्रथम सर्ग / पृष्ठ 10 / प्रताप नारायण सिंह

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छलका रुधिर बन अश्रु, मेरे तीक्ष्ण शब्दाघात से
विचलित हुए तब लखन अनुचित प्राण-घाती बात से

श्रीराम के वहि-प्राण पर आरोप जो मैंने धरे
गंभीर अति अपराध मेरा प्रायश्चित से है परे

करते रहे मुझको तिरष्कृत पाप वे मेरे बड़े
हैं आज वे आरोप सारे व्याल से घेरे खड़े

दुर्दिन हुए आरम्भ जो सौमित्र के प्रस्थान से
जलती रही मैं उम्र सारी अनवरत अपमान से

तापस बना, बहुरूपिया लंकेश, मुझको छल गया
कैकेयी की इर्ष्याग्नि में रघुवंश सारा जल गया

हर जीव बँधता-छूटता, कारण सदा निज कर्म के
संताप औ' सुख भोगता अनुरूप धर्माधर्म के

क्रन्दन कभी भवितव्यता को टाल पाता है नहीं
अधिकार में बस कर्म अपने, भाग्य होता है नहीं

दुर्बुद्धि मुझको ले गई दुःख-दग्ध पारावार में
बस यातना ही शेष थी मेरे लिए संसार में

संताप की वेदी चढ़ी, विरहाग्नि में जलती रही
गुरु-वेदना के नवशिखर मैं नित्य ही चढ़ती रही

निष्प्राण सी जीती रही, उस दुसह कारावास में
निज प्राण को रोके हुए, हरि से मिलन की आस में

पशु-पक्षियों से राह के मेरा पता प्रभु पूछते
आ जायँगे पर्वत शिखा, वन, सिन्धु सारे लाँघते

तब भस्म होगी स्वर्ण लंका राम की क्रोधाग्नि में
हो जायँगे स्वाहा सभी राक्षस महा-समराग्नि में

श्रृंगाल के भोजन बनेगे अंग सब दसशीश के
बस श्वान रोएँगे चतुर्दिक राज्य लंकाधीश के