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सीता: एक नारी / प्रथम सर्ग / पृष्ठ 6 / प्रताप नारायण सिंह

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मैं भाव विह्वल हो उठी, उर पर टिकाया माथ को
फिर कँपकँपाते निज करों से था धरा हरि-हाथ को

हाँ, राम हैं मेरे यही, यह मूर्ति ही मन में पली
इनके लिए ही त्याग कर प्रासाद मैं वन को चली

मेरे लिए तो महल से सुखकर अधिक है झोपड़ी
श्रीराम रहते सामने मेरे दृगों के हर घड़ी

निज प्राण-प्रिय के साथ रहने से सुखद कुछ भी नहीं
व्यक्तित्व घुलने के लिए एकांत ही होता सही

थे बंद मेरे दृग पटल आनंद के उन्मेष से
प्रिय-उँगलियाँ संवादरत थीं घने मेरे केश से

मैं चाहती थी काल रुक जाए प्रणय की छाँह में
औ' उम्र सारी सिमट जाए उन पलों की बाँह में

जब सिर हटाया वक्ष से कुछ झिलमिलाता सा दिखा
गतिमान हों समवेत मानो सैकड़ों दीपक-शिखा

ओझल हुआ था एक पल, फिर आ गया था सामने
अत्यंत विस्मय से भरी उसको लगी मैं देखने