सीता: एक नारी / प्रथम सर्ग / पृष्ठ 9 / प्रताप नारायण सिंह
अनुचित उचित कब देख पाती है विकल हठधर्मिता
मति फेर देती ज्ञानियों की भी प्रबल भवितव्यता
निष्फल हुए सतज्ञान के, सब जतन जो हरि ने किए
फिर विवश होकर चल दिए हठ पूर्ण करने के लिए
अवधेश के जाते चतुर्दिक अपशकुन होने लगा
अज्ञात डर के भँवर में, अति-खिन्न मन खोने लगा
सुन आर्त-वाणी राम की खोने लगी मैं चेतना
स्वर करुण-अति, पड़ मृत्यु मुख में चीखती ज्यों वेदना
सौमित्र को रक्षार्थ मैंने शीघ्र जाने को कहा
हे लखन! भ्राता राम पर है आ पड़ा संकट महा
फिर भी लखन निश्चल खड़े, किंचित न उनको त्रास था
"श्रीराम तो दुर्जेय हैं" मन में अटल विश्वास था
मारुत, वरुण, यम, चंद्र, सूरज राह अपनी छोड़ दें
काँपे अखिल ब्रह्माण्ड, हरि जो भृकुटी अपनी मोड़ दें
रघुकुल-तिलक की हो करुण चीत्कार यह, संभव नहीं
आलोक मन में सत्य का, किंचित नहीं संशय कहीं
अविचल उन्हें मैं देख भावावेश में बहने लगी
फिर लक्ष्य कर उनका हृदय, अति-कटु वचन कहने लगी