सीता: एक नारी / षष्टम सर्ग / पृष्ठ 2 / प्रताप नारायण सिंह
मुझको भुलाया, कष्ट यह अब गौण है मेरे लिए
उनका हृदय क्यों किन्तु फटता है नहीं सुत के लिए
निज तात के होते हुए लव कुश अनाथों से रहें
सिय-कोख से बस जन्मने का दण्ड वे कब तक सहें
पितु कर्म से तो पुत्र का बनता बिगड़ता भाग्य है
क्यों गर्भ सीता का बना इनके लिए दुर्भाग्य है
मैं देखती नित दिवस, ज्यों ज्यों उम्र बढ़ती जा रही
लव और कुश की राम जैसी छवि निकल कर आ रही
उन्नत वही मस्तक, नयन में सिंधु की गम्भीरता
मुस्कान अधरों पर, टपकती चेहरे से वीरता
अति सघन कुंतल बीच दर्शित दीप्तिमय मुख यूँ लगे
तारक रहित आकाश में घन बीच चन्दा ज्यों उगे
जाती स्वयं को भूल मैं, लगती उन्हें जब निरखने
बन मूर्त ज्यों सौंदर्य खुद होता खड़ा आ सामने
जूड़ा बँधा सिर पश्च, भुज रुद्राक्ष, धनु काँधे लिए
अवलोक उनका रूप शस्त्राभ्यास को जाते हुए
मानस पटल पर उभर आतीं त्वरित रेखाएँ कई
छवि राम की पहली यही, जो थी हृदय में बस गई
वे व्रह्मचारी वेश बिल्कुल थे यही धारण किए
शिक्षा ग्रहण के बाद ही थे जनकपुर आए हुए