भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
सीना तो ढूँड लिया मुत्तसिल अपना हम ने / 'हसरत' अज़ीमाबादी
Kavita Kosh से
सीना तो ढूँड लिया मुत्तसिल अपना हम ने
नहीं मालूम दिया किस को दिल अपना हम ने
अह्द क्या कर के तिरे दर से उठे थे क़िस्मत
फिर दिखाया तुझे रू-ए-ख़जिल अपना हम ने
मेरी आलूदगियों से न कर इक राह ऐ शैख़
कुछ बनाया तो नहीं आब-ओ-गिल अपना हम ने
सख़्त काफ़िर का दिल अफ़्सोस न शरमाया कभी
पूजा जूँ बुत तो बहुत संग-दिल अपना हम ने
पानी पहुँचा सके जब तक मिरी चश्म-ए-नम-नाक
जल बुझा पाया दिल-ए-मुश्तइल अपना हम ने
बाद सौ-ए-रंजिश बेजा के न पाया ब-ग़लत
न पशेमान तुझ मुन्फ़इल अपना हम ने
दर ग़रीबी न था कुछ और मयस्सर ‘हसरत’
इश्क़ की नज्र किया दीन ओ दिल अपना हम न