भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

सीपियाँ बटोरते हुए साँझ हो गयी / गुलाब खंडेलवाल

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज


सीपियाँ बटोरते हुए साँझ हो गयी.
मछुआरे अपना-अपना जाल समेट लाये
पंछी सागर-यात्रा से घर लौट आये
सूरज की शेष किरण भी खो गयी.
सारे दिन मैंने इस किनारे से उस किनारे
कहाँ-कहाँ, किस-किसके आगे हाथ नहीं पसारे
हर लहर हुँकारी भरती सो गयी.
यद्यपि मणि-मोतियों का अकूत ढेर वहीं था
पर मेरी रुचि का उनमें एक भी नहीं था
मुझे मेरी अहमन्यता ही डुबो गयी.
सीपियाँ बटोरते-बटोरते साँझ हो गयी.