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सीपी-क्षण मुट्ठी में / कुमार रवींद्र

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उजियाला पूरा है
   या गहरा अँधियारा
           कुछ भी तो पता नहीं
 
पोत लिये आये थे
सागर में
बहुत दूर निकल गये
मुट्ठी में पकड़े
हम सीपी-क्षण
मोती की बस्ती में फिसल गये
 
घटता यह जल है
    या उठता है ज्वार
          कुछ भी तो पता नहीं
 
बाँधते रहे लंगर
पाँव-तले
खिसक रही रेती से
अपनी ही आहट से
डरे हुए
जुड़े रहे घोंघों की खेती से
 
कितना कुछ दे बैठे
     या कितना है उधार
         कुछ भी तो पता नहीं