भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
सीमाओं की आँखें / रामेश्वर काम्बोज ‘हिमांशु’
Kavita Kosh से
आगे ही ये बढ़े कदम
पर्वत पर भी चढ़े कदम
नाप दिया है सागर को
चट्टानों पर चढ़े कदम ।
हर कदम की अमिट निशानी
बन जाती इतिहास है ।
करती तोंपें घन-गर्जन
थर्रा उठता नील गगन
रणभेरी की लय सुनकर
खिल उठता है अपना मन।
झड़ी गोलियों की लगती
हमे प्यारा मधुमास है ।
अँधड़ शीश झुकाते हैं
कुचल उन्हें बढ़ जाते हैं
मिट्टी में मिल जाते वे
जो हमसे टकराते हैं ।
सीमाओं की आँखें हम
यही अपना विश्वास है ।