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सीमान्त की चिट्ठी / रणजीत साहा / सुभाष मुखोपाध्याय

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मैं तुमको भूल न पाया
तुम भूल न जाना मुझको
तुम्हारी हज़ार-हज़ार आँखें
देख रहीं तारों से मुझको।

पर्वत मेरे पास खड़ा है
अगिन रंग का हरा इलाका
हाँ, यहाँ प्रस्तुत हूँ मैं
ओर प्रतिश्रुत पौरुष मेरा।

तुम सब हो अनथक साथी एक-एक खेत में,
तुम्हारे हाथ की फ़सल
भूखी मज्जा में समा जाती है-
तभी तो बढ़ पाते हैं हमारे क़दम
तुम्हारे ही हाथ का वज्र
शत्रुशिविर में चलाते हैं हम।

तोड़ दो ज़ंजीरें, हाँक लगी है चारों ओर
मेरे मन में, इधर
धधक उठती है निर्मम घृणा
मैं देख रहा हूँ दुश्मन की जलती आँखों में-
जीवन-दान की याचना।