सीमा और क्षणिकायें / राजीव रंजन प्रसाद
सीमा -१
तुमने सीमा बना ली है
मैंने तोड़ दी है सीमायें
तुम गमों में कैद हो
मैं गमों के लिये आज़ाद हूँ..
सीमा -२
सीमाओं के पार
प्यार का पंछी उड़ता जाये रे
नदियों का पानी अंबर को
देख-देख इठलाये रे
मेरे मन में क्या बैठा है
ये तेरी आँखों जैसा
टीस-टीस दिल चीर गया है
जैसे दीमक खाये रे..
सीमा -३
ये मेरा दिल था
और तुम्हारे साथ मुहब्बत का धरातल
सरसों का खेत हो गया था
बीचों-बीच ये कैसी सीमा
मेरा कलेजा काट कर सरहद बना दिया है..
सीमा -४
मेरे गम की भी एक सीमा है
बहुत शाम तक खामोश रहता हूँ
रो लेता हूँ कभी-कभी
मन हलका नहीं होता लेकिन
हथेली पर सिर पटक लेता हूँ
और चुप्पी की आखों में आँखें डाल
तुम्हें नहीं सोचने की पूरी कोशिश करता हूँ
और जब टूट जाता हूं
बहुत खीज कर मुस्कुराता हूं...और मुस्कुराता हूं
मेरे गम की भी एक सीमा है
सीमा -५
एक बार देस में पंछी के
दो चार चिरैये लड़ बैठे
फिर आसमान में सीमायें बन गयीं अनेकों
कैसे सूरज बँटता लेकिन
किसके हिस्से चांद सिमटता
और हवाओं का क्या होता
बैठ चिरैये सोच रहे थे
तुम भी सोचो सीमा में क्या बंध जायेगा सब कुछ...
सीमा -६
तुमने कहा अब सीमा नहीं
तुम कुछ भी नहीं मेरे
अलविदा मेरी ज़ुल्फों के अंधेरे से
पलकों के सवेरे से
अलविदा मेरे सबकुछ..अलविदा
मुझे लगा खंडहर की दीवार की तरह
एकाएक ढह गया मैं
पर सोचता हूँ तुमने सीमाहीन किया ही नहीं था
आंखों को आसमान तक
बाँहों को कलेजे तक
और स्वयं को यादों के कटीले तार से घिरा पाया
जब महसूस हुआ
कुछ कुछ संभल रहा हूँ...
सीमा -७
तुम थे तो सपनों के पास सीमा नहीं थी
तुम नहीं हो
तो सपनों की सीमा तुम हो..
सीमा -८
आओ उदासियों
मेरे गिर्द अपने हाथ थाम
एक गोल घेरा बना लो
मुझे सीमा चाहिये है
पिंजरे का तोता उड़ान का सपना भूल चुका
सीमा -९
सीमा जब टूटेगी
तो क्या जीने की फिर भी सूरत होगी?
बाँध टूटते हैं तो विप्लव आते हैं..
३०.१२.१९९५