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सीमा प्रहरी 'रेगिस्तान' / मृदुला शुक्ला

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मन तो भागता होगा तुम्हारा
रेतके बवंडरों के पीछे

थाम लेने को महबूब का दामन समझ
दूर बहुत दूर जब दिखता होगा कोई नखलिस्तान
तो तुम तब्दील हो जाते होगे
रेगिस्तान के जहाज में
तुम भर लेते होगे ठंडक अपनी आँखों में ,महीनो के लिए
और ओढ़ लेते होगे हरियाली को माँ का आँचल समझ

जब नहीं आती चिट्ठियां तार संदेशे
तो फिर बनाते हो कालिदास के मेघों को दूत
मगर सुना है की रेगिस्तानो मैं बादल भी कभी
भूल कर ही जाते हैं

दग्ध रेत के जंगलों मैं जब उदास होते हो
तो रेत ने कहा तो जरुर होगा तुमसे ?
रेगिस्तान मैं रहना है तो जियो रेत बनकर

दिन भर तप कर भी वो कहाँ रखती है मन में ताप
शाम के धुंधलके से ही बादलों को लौटा
सारी गर्मी खिल जाती है रेत चाँदनी रातों की शीतलता सी

जानती हूँ!
तृप्ति की तलाश में दग्ध हो तुम
मगर जलना होगा तुम्हे...
क्यूंकि इसी आग मैं पकते हैं एक मुल्क
की मीठी नींद के सपने