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सीर रो घर (कविता) / वासु आचार्य

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लारलै-
केई बरसां सूं
म्हैं म्हारै
पुरखां रै घर नैं
ताकतो रैवूं- घणी बार

म्हनैं लखावै
घर भी पाछो ताकै है
निजर पसार

दिन रै उजाळै में
घर कीं नीं बोलै
माइतां री-
माण मरजाद रो
म्हासूं बत्तो औ सैनाण
भूत ज्यूं खड़्यो
घर सूं-
‘ढूंढो’ बणतो
रात रै अंधारै में
डुसका भरतो-
आपरो मुंडो खोलै

गूंजण लागै
म्हारै कानां में
दरद भरिया दरदीला बोल
तूं- क्यूं-
फाड़तो रैवै आंख्यां
म्हारै कानी
क्यूं कुचरै है- म्हारा घाव
अर क्यूं लेवै है-
म्हारो पाणी

घर जणै थोड़ो थमै
अर फेर बोलै-

और भी तो हा-
छोड़ग्या
नीं ठाह क्यूं गया
नीं साळ-संभाळ
नीं बोल-बतळावण
म्हैं झर रैयो हूं-
गळ रैयो हूं- मांय रो मांय

कांई बखत हो-
कै आसै-पासै रा लोग
निसरता हा- म्हनैं
माथो झुकाय

कांई बखत है-
निसर जावै
नसड़ी झुकाय
माइतां नै सायत
ठाह नीं हो
कै म्हैं बां रै पाछै
हुय जाऊंला- सीर रो घर
अर होऊंला जीर-जीर
म्हारै ही लाडला री
बेरूखी सूं

घर रो जाणै
गळो रूंधग्यो
चुपचाप बैवण लागगी
आंसुवां री धार

म्हैं नीं दे सक्यो
पाछो कोई पडूत्तर

म्हारै रूं-रूं में फैलगी
चीस्याड़ां
बिलखतै माइतां री

म्हनै लखायो-
म्हारै पुरखां रो घर
घर नीं है
चीखता-चिंघाड़ता माइत है
जिणां नैं भारिया बुढ़ापै में
सुगार फैंक दिया है
उणां रा ही लाडेसर

म्हैं- फेर ताकूं हूं
चुपचाप-
पुरखां रै चिणायै म्हारै घर नैं
सीर रै घर नैं।