सीलमपुर की लड़कियाँ / आर. चेतनक्रांति
सीलमपुर की लड़कियाँ `विटी´ हो गईं
लेकिन इससे पहले वे बूढ़ी हुई थीं
जन्म से लेकर पन्द्रह साल की उम्र तक
उन्होंने सारा परिश्रम बूढ़ा होने के लिए किया,
पन्द्रह साला बुढ़ापा
जिसके सामने साठ साला बुढ़ापे की वासना
विनम्र होकर झुक जाती थी
और जुग-जुग जियो का जाप करने लगती थी
यह डॉक्टर मनमोहन सिंह और एम० टी० वी० के उदय से पहले की बात है।
तब इन लड़कियों के लिए न देश-देश था, न काल-काल
ये दोनों
दो कूल्हे थे
दो गाल
और दो छातियाँ
बदन और वक़्त की हर हरकत यहाँ आकर
माँस के एक लोथड़े में बदल जाती थी
और बन्दर के बच्चे की तरह
एक तरफ़ लटक जाती थी
यह तब की बात है जब हौजख़ास से दिलशाद गार्डन जानेवाली
बस का कंडक्टर
सीलमपुर में आकर रेजगारी गिनने लगता था
फिर वक़्त ने करवट बदली
सुष्मिता सेन मिस यूनीवर्स बनीं
और ऐश्वर्या राय मिस वर्ल्ड
और अंजलि कपूर जो पेशे से वकील थीं
किसी पत्रिका में अपने अर्द्धनग्न चित्र छपने को दे आईं
और सीलमपुर, शाहदरे की बेटियों के
गालों, कूल्हों और छातियों पर लटके माँस के लोथड़े
सप्राण हो उठे
वे कबूतरों की तरह फड़फड़ाने लगे
पन्द्रह साला इन लड़कियों की हज़ार साला पोपली आत्माएँ
अनजाने कम्पनों, अनजानी आवाज़ों और अनजानी तस्वीरों से भर उठीं
और मेरी ये बेडौल पीठवाली बहनें
बुजुर्ग वासना की विनम्रता से
घर की दीवारों से
और गलियों-चौबारों से
एक साथ तटस्थ हो गईं
जहाँ उनसे मुस्कुराने की उम्मीद थी
वहाँ वे स्तब्ध होने लगीं,
जहाँ उनसे मेहनत की उम्मीद थी
वहाँ वे यातना कमाने लगीं
जहाँ उनसे बोलने की उम्मीद थी
वहाँ वे सिर्फ़ अकुलाने लगीं
उनके मन के भीतर दरअसल एक कुतुबमीनार निर्माणाधीन थी
उनके और उनके माहौल के बीच
एक समतल मैदान निकल रहा था
जहाँ चौबीसों घण्टे खट-खट् हुआ करती थी।
यह उन दिनों की बात है जब अनिवासी भारतीयों ने
अपनी गोरी प्रेमिकाओं के ऊपर
हिन्दुस्तानी दुलहिनों को तरजीह देना शुरू किया था
और बड़े-बड़े नौकरशाहों और नेताओं की बेटियों ने
अंग्रेजी पत्रकारों को चुपके से बताया था कि
एक दिन वे किसी न किसी अनिवासी के साथ उड़ जाएँगी
क्योंकि कैरियर के लिए यह ज़रूरी था
कैरियर जो आज़ादी था
उन्हीं दिनों यह हुआ
कि सीलमपुर के जो लड़के
प्रिया सिनेमा पर खड़े युद्ध की प्रतीक्षा कर रहे थे
वहाँ की सौन्दर्यातीत उदासीनता से बिना लड़े ही पस्त हो गए
चौराहों पर लगी मूर्तियों की तरह
समय उन्हें भीतर से चाट गया
और वे वापसी की बसों में चढ़ लिए
उनके चेहरे खूँखार तेज़ से तप रहे थे
वे साकार चाकू थे,
वे साकार शिश्न थे
सीलमपुर उन्हें जज्ब नहीं कर पाएगा
वे सोचते आ रहे थे
उन्हें उन मीनारों के बारे में पता नहीं था
जो इधर
लड़कियों की टाँगों में तराश दी गई थीं
और उस मैदान के बारे में
जो उन लड़कियों और उनके समय के बीच
जाने कहाँ से निकल आया था
इसलिए जब उनका पाँव उस ज़मीन पर पड़ा
जिसे उनका स्पर्श पाते ही धसक जाना चाहिए था
वे ठगे से रह गए
और लड़कियाँ हँस रही थीं
वे जाने कहाँ की बस का इन्तजार कर रही थीं
और पता नहीं लगने दे रही थीं कि वे इन्तजार कर रही हैं।