भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

सुआ-खंड / मलिक मोहम्मद जायसी

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

मुखपृष्ठ: पद्मावत / मलिक मोहम्मद जायसी


पदमावति तहँ खेल दुलारी । सुआ मँदिर महँ देखि मजारी ॥
कहेसि चलौं जौ लहि तन पाँखा । जिउ लै उडा ताकि बन ढाँखा ॥
जाइ परा बन खँड जिउ लीन्हें । मिले पँखि, बहु आदर कीन्हें ॥
आनि धरेन्हि आगे फरि साखा । भुगुति भेंट जौ लहि बिधि राखा ॥
पाइ भुगुति सुख तेहि मन भएऊ । दुख जो अहा बिसरि सब गएऊ ॥
ए गुसाइँ तूँ ऐस विधाता । जावत जीव सबन्ह भुकदाता ॥
पाहन महँ नहिं पतँग बिसारा । जहँ तोहि सुनिर दीन्ह तुइँ चारा ॥

तौ लहि सोग बिछोह कर भोजन परा न पेट ।
पुनि बिसरन भा सुमिरना जब संपति भै भेंट ॥1॥

पदमावति पहँ आइ भँडारी । कहेसि मँदिर महँ परी मजारी ॥
सुआ जो उत्तर देत रह पूछा । उडिगा, पिंजर न बोलै छूँछा ॥
रानी सुना सबहिं सुख गएऊ । जनु निसि परी, अस्त दिन भएऊ ॥
गहने गही चाँद कै करा । आँसु गगन जस नखतन्ह भरा ॥
टूट पाल सरवर बहि लागे । कवँल बूड, मधुकर उडि भागे ॥
एहि विधि आँसु नखत होइ चूए । गगन छाँ सरवर महँ ऊए ॥
चिहुर चुईं मोतिन कै माला । अब सँकेतबाँधा चहुँ पाला ॥

उडि यह सुअटा कहँ बसा खोजु सखी सो बासु ।
दहुँ है धरती की सरग, पौन न पावै तासु ॥2॥

जौ लहि पींजर अहा परेवा । रहा बंदि महँ, कीन्हेसि सेवा ॥
तेहि बंदि हुति छुटै जो पावा । पुनि फिरि बंदि होइ कित आवा ?॥
वै उडान-फर तहियै खाए । जब भा पँखी, पाँख तन आए ॥
पींजर जेहिक सौंपि तेहि गएउ । जो जाकर सो ताकर भएउ ॥
दस दुवार जेहि पींजर माँहा । कैसे बाँच मँजारी पाहाँ ?॥
चहूँ पास समुझावहिं सखी । कहाँ सो अब पाउब, गा पँखी ॥
यह धरती अस केतन लीला । पेट गाढ अस, बहुरि न ढीला ॥

जहाँ न राति न दिवस है , जहाँ न पौन न पानि ।
तेहि बन सुअटा चलि बसा कौन मिलावै आनि ॥3॥

सुए तहाँ दिन दस कल काटी । आय बियाध ढुका लेइ टाटी ॥
पैग पैग भुईं चापत आवा । पंखिन्ह देखि हिए डर खावा ॥
देखिय किछु अचरज अनभला । तरिवर एक आवत है चला ॥
एहि बन रहत गई हम्ह आऊ । तरिवर चलत न देखा काऊ ॥
आज तो तरिवर चल, भल नाहीं । आवहु यह बन छाँडि पराहीं ॥
वै तौ उडे और बन ताका । पंडित सुआ भूलि मन थाका ॥
साखा देखि राजु जनु पावा । बैठ निचिंत चला वह आवा ॥

पाँच बान कर खोंचा, लासा भरे सो पाँच ।
पाँख भरे तन अरुझा, कित मारे बिनु बाँच ॥4॥

बँधिगा सुआ करत सुख केली । चूरि पाँख मेलेसि धरि डेली ॥
तहवाँ बहुत पंखि खरभरहीं । आपु आपु महँ रोदन करही ॥
बिखदाना कित होत अँगूरा । जेहि भा मरन डह्न धरि चूरा ॥
जौं न होत चारा कै आसा । कित चिरिहार ढुकत लेइ लासा ?॥
यह बिष चअरै सब बुधि ठगी । औ भा काल हाथ लेइ लगी ॥
एहि झूठी माया मन भूला । ज्यों पंखी तैसे तन फूला ॥
यह मन कठिन मरै नहिं मारा । काल न देख, देख पै चारा ॥

हम तौ बुद्धि गँवावा विष-चारा अस खाइ ।
तै सुअटा पंडित होइ कैसे बाझा आइ ?॥5॥

सुए कहा हमहूँ अस भूले । टूट हिंडोल-गरब जेहि भूले ॥
केरा के बन लीन्ह बसेरा परा साथ तहँ बैरी केरा ॥
सुख कुरबारि फरहरी खाना । ओहु विष भा जब व्याध तुलाना ॥
काहेक भोग बिरिछ अस फरा । आड लाइ पंखिन्ह कहँ धरा ?॥
सुखी निचिंत जोरि धन करना । यह न चिंत आगे है मरना ॥
भूले हमहुँ गरब तेहि माहाँ । सो बिसरा पावा जेहि पाहाँ ॥
होइ निचिंत बैठे तेहि आडा । तब जाना खोंचा हिए गाडा ॥

चरत न खुरुक कीन्ह जिउ, तब रे चरा सुख सोइ ।
अब जो पाँद परा गिउ, तब रोए का होइ ? ॥6॥

सुनि कै उतन आँसु पुनि पोंछे । कौन पंखि बाँधा बुधि -ओछे ॥
पंखिन्ह जौ बुधि होइ उजारी । पढा सुआ कित धरै मजारी ?॥
कित तीतिर बन जीभ उघेला । सो कित हँकरि फाँद गिउ मेला ॥
तादिन व्याध भए जिउलेवा । उठे पाँख भा नावँ परेवा ॥
भै बियाधि तिसना सँग खाधू । सूझै भुगुति, न सूझ बियाधू ॥
हमहिं लोभवै मेला चारा । हमहिं गर्बवै चाहै मारा ॥
हम निचिंत वह आव छिपाना । कौन बियाधहि दोष अपाना ॥

सो औगुन कित कीजिए जिउ दीजै जेहि काज ।
अब कहना है किछु नहीं, मस्ट भली, पखिराज ॥7॥


(1) बनढाँख = ढाक का जंगल, जंगल । अहा = था ।

(2) पाल = बाँध, भीटा, किनारा । चिहुर = चिकुर, केश । सँकेता = सँकरा, तंग ।

(3) हुति = से ।

(4) ढुका = छिपकर बैठा । आऊ = आयु । काऊ = कभी । खोंचा = चिडिया फँसाने का बाँस ।

(5) डेली = डली, झाबा । डहन = डैना, पर । चिरिहार = बहेलिया । ढुकत = छिपाता । लगी = लग्गी, बाँस की छड । फूला = हर्ष और गर्व से इतराया । अँगूरा = अंकुर ।

(6) कुरवारि = खोद ,खोदकर, चोंच मार-मारकर, जैसे -धरनी नख चरनन कुरवारति-सूर। तुलाना = आ पहुँचा । जेहि पाहाँ = जिस (ईश्वर) से । गिउ = ग्रीवा, गला ।

(7) खाधु = खाद्य । लोभवै = लोभ ही ने । मस्ट = मौन ।