भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
सुकरात को याद करते हुए / बाबुषा कोहली
Kavita Kosh से
जिस दिन
वो दुनियावी ऐनक
टूट गई थी
तुम सब ने मिलकर
मेरी आँखें फोड़ दी थीं
बस !
उस दिन से ही भीतर
एक ढिबरी जलती है ।