सुकवि सप्तक / महावीर प्रसाद ‘मधुप’
1.
मैं करके विषपान सुधारस का वितरण करता हूँ,
जग को दे वरदान, स्वयं अभिशाप वरण करता हूँ॥
दुःख अपना दुलरा कर, गाकर मस्ती भरे तराने,
जन-जीवन के सकल शोक-सन्ताप हरण करता हूँ॥
2.
मैं कवि हूँ मेरे जीवन की अनुपम अकथ कहानी,
मेरे इस भोले मन की भावुकता किसने जानी।
मैं कब क्या करता, कहता हूँ, क्यों हँसता-रोता हूँ,
जान सके क्या इस रहस्य को यह दुनिया दीवानी॥
3.
मैं चाहूँ तो पल भर में मरुथल में कमल खिला दूँ,
मैं चाहूँ तो क्षण में ही सागर में आग लगा दूँ।
मैं प्रभात को रात, रात को प्रात बना सकता हूँ,
मैं चाहू तो नभ के तारे तोड़ धरा पर ला दूँ॥
4.
भीतर-बाहर की दुनिया सब मेरी देखी भाली,
विधि की इस दुनिया से मेरी दुनिया नई निराली।
मेरे गीतों में जादू, वाणी में विद्युत-बल है,
मैं मुर्दों में प्राण फूँक कर कर देता बलशाली॥
5.
देख उदासी मेरे मुख पर सन्ध्या घिर आती है,
नेत्र सजल होते ही नभ से घटा बरस जाती है।
मैं मुसकाता तो खिल उठती हैं उपवन की कलियाँ,
फट जाती लख तेज मौत की पाषाणी छाती है॥
6
मैं दीपक-सा पर हित में चुपचाप जला करता हूँ,
पीड़ाएँ सहकर भी जग का सदा भला करता हूँ।
मेरी गति निर्बाध, न कोई रोक मुझे सकता है,
मैं अपने पथ पर निर्भय अविराम चला करता हूँ॥
7.
मैं अपने उर की झोली से प्रतिपल रत्न लुटाता,
लेकिन इस अनुदार जगत् से बदले में क्या पाता।
चाँदी के टुकड़ों से मेरा मूल्य आँकने वालो!
मेरे भोले मन का केवल भावुकता से नाता॥