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सुकोमल अधर / संजीव 'शशि'
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धर दिये मेरे मस्तक प्रिये,
पंखुड़ी से सुकोमल अधर।
मन को आभास ऐसा हुआ,
रात जैसे गयी हो ठहर॥
कल्पनाएँ जो मन में सजीं,
आज साकार होने लगीं।
कंचनी देह को देखकर,
उँगलियाँ धैर्य खोने लगीं।
स्वर्ग को छोड़कर अप्सरा,
ज्यों धरा पर हो आयी उतर॥
क्यों रहे द्वंद मन में प्रिये,
प्रेम पथ पर धरे जब चरण।
क्यों हो संकोच मन में लिये,
जब लगी प्रीत की हो लगन।
प्रेम की इस नदी में हमें,
जाने कितने मिलेंगे भँवर॥
मन भ्रमर-सा हुआ बाबरा,
जैसे कोई कली खिल गयी।
एक पल को चुनर जो हटी,
रात में धूप-सी खिल गयी।
एक पल देखने को तुम्हें,
रात भूली सुबह की डगर॥