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सुख़न की शब लहू रोती रहेगी / अमीन अशरफ़

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सुख़न की शब लहू रोती रहेगी
किसी से गुफ़्तुगू होती रहेगी

वो सूरज है तो हो नज़दीक जाँ भी
ये ताबिश चार सू होती रहेगी

दुरीदा दामनी है बे-कली से
इसी से ये रफ़ू होती रहेगी

कोई ग़ुचाँ सवार-ए-कहकशां था
ख़बर ये कू-ब-कू होती रहेगी

मैं अक्सर सोचता रहता हूँ कब तक
ज़मीं बे-आबरू होती रहेगी

समंदर के किनारे मिल रहे हैं
ये दुनिया आब-जू होती रहेगी

ख़ज़ीने काएनाती कम न होंगे
नमूद-ए-जुस्तुजू होती रहेगी

निहाल-ए-इश्‍क अफ़सुर्दा न होगा
तमन्ना-ए-नुमू होती रहेगी

न वो होगा न हम लेकिन ये दुनिया
हरीस-ए-रंग-ओ-बू होती रहेगी