सुख-दुख / चित्रा पंवार
सुख चिड़िया-सा आया
पल भर बैठा
फुर्र र से उड़ गया
दुख अजगर-सा
आकर
पसर गया
जीवन में
दुख कुछ ऐसे घुला है सांसों में
जैसे पानी में नमक और चीनी
जैसे मुंह में घुल जाता है
महोबा का पान
बुढ़िया के बाल
आजकल कुछ ऐसे बिछा रही हूँ दुख को
जैसे जमीन का बिछौना बिछा
सोता है आसमान
और धरती आकाश की चादर से मुंह ढाप
रोती है चुप चुप
दिन में साथ रहने वाली
परछाई भी
रात में विदा लेती है
यहाँ तो दुख अंधेरों में भी
साथ नहीं छोड़ता
उजाले तो खैर हैं ही नहीं
समय–समय पर
हलका करते चलो मन को
आंसुओं के सहारे
नहीं तो फट पड़ोगे
किसी दिन
बादल की तरह
नदी का सौंदर्य
सब ने देखा
किसी ने नहीं देखा
पहाड़ का दुख
पिता के दुख
कम हो जाते
अगर वह थोड़े से
मां हो जाते
आदमी सुख में नहीं
दुख में फूलता है
सुख बट जाता है
दुख इकट्ठा होता रहता है
उसके भीतर
खोपड़ी घूमती
बस ऊपर–नीचे
दाएँ बाएँ नहीं
फिर
सुख ही सुख था