(राग परज-ताल कहरवा)
सुख-संपति में तव प्रसाद-अमृत का मैं नित करता पान।
दुख-संकटमें पाता हूँ तव कोमल करका स्पर्श महान॥
प्रेम-सुधा-रसका अनन्त सागर लहरा दो जीवनमें।
सदा-सर्वदा लगा रहूँ बस, तव पद-पंकज-सेवनमें॥
ले लो सब समान-सपदा; हर लो सारी माया, नाथ!
नित्य छत्रछायामें रखो, बना रहूँ मैं सदा सनाथ॥