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सुख कहीं है, यह भरम है / अमरेन्द्र
Kavita Kosh से
सुख कहीं है, यह भरम है,
दुःख यहाँ पर ही परम है।
जन्म लो, रोते हुए लो,
उम्र रोते ही बिताओ,
फिर नया लो जन्म, लेकिन
आग में तन को गलाओ;
मन भरा जब शोक से है
क्या हँसी की बात हो फिर,
चाँदनी की रात में ही
मेघ आते घोर घिर-घिर ।
काल पर काली खड़ी है,
देवता पर यम-नियम है ।
मृत्तिका तन, मृत्तिका मन
आँसुओं का नद उमड़ता,
एक छोटे द्वीप पर यह
जल-प्रलय का पाँव पड़ता;
काठ का पुतला नदी पर
तैरता; गहरा किनारा,
बावली लहरें मचलतीं
क्या भँवर का ही सहारा ?
कौन इसको हल करेगा
प्रश्न यह ऐसा विषम है ।