भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
सुख के कुटका / चेतन भारती
Kavita Kosh से
अंधियारी-अंजोरी के झगरा म,
रतिहा सपनाये सपना परागे ।
गोल्लर पद पाके भूकरत हावे,
ठलहा लइका के जिन्गी लरागे।।
जुवानी के अंतस म खुसरगे हताश,
समे हा कोचकत हे लगाके अटाश ।
कतक दिन ले सियत रहय पीरा के कथरी
ओसारी म बइठे खोजत हे घाम,
पेट म रोटी के जगा हमागे पथरी।।
नंदिया के खंड़ ह मरत हे पियास,
बोहात हे संसो आगू फुदकत हे सियार ।
कहूँ संग झगरा न कहूँ संग लिगरी,
कोनो करे जिंदा कोनो दिल्लगी ।।
कलेचुप टेंवत हे पथरा म तन ला,
कुलुप अंधियार हे मानय न मन हा ।
बस्सात पटका पहिरे कतक बच्छट हीतगे,
लहरा गँवागे टोंटा सुखागे अंतस हुलगे ।
बेरोजगारी के फोरा म तड़पत जुवानी
उपेक्षा अऊ तिरस्कार के बोहात पीप
कतक दिन ले सहय, बादत हे कहानी
अऊ गुंगवाही नक्सलवाद के आगी ।