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सुगना मुण्डा की बेटी-1 / अनुज लुगुन

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सुगना मुण्डा की बेटी

आसमान को छू कर
उन्हें भेद देने की होड़ में खड़ी
कलात्मक इमारतों से लिपटी
चमकती काली सर्पीली सड़कों के नेपथ्य में
यह बाघ की गर्जना है
उसकी गर्जना से
जंगल की सूखी टहनियाँ
दीमकों की पपड़ियाँ झर रही हैं
गोलियों की तड़तड़ाहट
और विस्फोटकों की कर्कश धमाकों के बीच
नेपथ्य-ध्वनि की तरह रह-रह कर उठती है चीख़,
बच्चों की, औरतों की और बूढ़ों की कराह,
उनके भागने की आहट,
झाड़ियों के टूटने-चरमराने की आहट,

बाघ की गर्जना से पहले बज रही
मान्दर की थाप अब थम चुकी है,

रात का अन्तिम पहर है
चाँद जो टुकड़ों में अब तक आसमान में था
वह भी जा छुपा था किसी ओट में
झींगुर, जुगनू, नुगुर
हर कोई जैसे गवाही देने से
बचना चाह रहा हो
घबराती हुई, डरती हुई
ख़ुद को सँभालती हुई सुगना मुण्डा की बेटी ने कहा —
‘‘यह बीजापुर है
सिर्केगुडम, कोथागुडम, राजुपेंता और जागामुण्डा,
ये दण्डकारण्य के गाँव हैं
हमारा गाँव-घर है दण्डकारण्य
दण्डकारण्य के गाँवों ने ‘वैश्विक ग्राम’
के सन्धि प्रस्तावों के विरुद्ध मतदान किया है
क्या उसी का परिणाम है यह कि
यहाँ मासूम, नाबालिगों तक की लाशें बिखरी हुई हैं।’’

उस चीख़ती हुए सन्नाटे में
काँच की चूड़ियों के टूटने की खनक
एक सम्बोधन के साथ पसरी —
‘‘ओ रीडा हड़म...!!
तुम तो कहा करते थे
जंगली जानवर
बच्चों और औरतों पर हमला नहीं करते
लेकिन इतना बड़ा और अचानक हमला...?
कहीं कोई आहट तक नहीं हुई
ओह...!!!!
ओ सिंगबोंगा!
ओ धर्मस!
ओ मारँग बुरु!
ओ शिकारी देवता!
हमसे क्या ग़लती हुई।??

ओ हमारे देवथान के पुरखा!
हमारे गुरु!
कैसे मान लूँ कि
तुम्हारी शिक्षा ग़लत थी
कैसे मैं दुनिया को बताऊँ कि
यह एक जानवर का ही हमला है।।
...?...?...?...ओह!!’’

और दूर जंगली पहाड़ियों के बीच
किसी गाँव से आती रही नेपथ्य में
पाडू कर रहे लोगों की आवाज़
एक गीत गूँजता रहा
रात की सतर्क आँखों के नीचे —
‘‘कौन जंगल जल रहा
केवल धुआँ ही धुआँ उठ रहा
हाय रे, मेरे मीत रे
तुम देखने से भी दिख नहीं रहे
खोजने से भी मिल नहीं रहे
तुम्हें पत्थर से ढँक दिया गया
तुम्हें काँटों से ओढ़ दिया गया
हाय रे, मेरे मीत रे
तुम देखने से भी दिख नहीं रहे
खोजने से भी मिल नहीं रहे’’

सुगना मुण्डा की बेटी
देसाउली में देंवड़ा की मुद्रा में बैठी रही
गूँजता था गीत उसकी कानों में
साथ गूँजती थीं उस रात में
गोलियों और विस्फोटकों की आवाज़
वह कुछ गुनती रही
कुछ मथती रही
मन में अवसाद था
कुछ बीती सदियों का कटु मवाद था
वह भविष्य की सुनहरी उम्मीद में
तालाब में पसरे कमल-कुमुदों के बीच
खोजती रही गुणकारी औषधि-युक्त लाल कमल
जिसे अर्पित कर
इस संत्रास सदी से मुक्ति मिले,

उस घटना के बाद
एक रात वह
नाट्य रूप में पुरखों से मुखातिब रही —
‘‘मुझे बताओ रीडा हड़म
वह किस जंगल से आया था
उसके पदचिह्न किस ओर से आए थे
किस ओर गए हैं
मुझे बताओ...मुझे बताओ’’

रीडा हड़म ने
बेचैन समुद्र-सी गहरी साँस लेकर
अपने सम्पूर्ण संचित अनुभव ज्ञान से कहा —
‘‘ओ बिरसी!
यह वह चौपाया बाघ नहीं
जिसका शिकार बहिंगा से
तुम्हारी दई ने बकरी चराते समय किया था
जब उसने जानलेवा हमला बोला था,

यह वह धारीदार बाघ नहीं
जिसे तुम्हारे दादा ने
हल जोतते समय
हल की मूठ से परास्त किया था
जब उसने बैलों पर झपट्टा मारा था,

यह वह आदमख़ोर भी नहीं
जिसका मैंने दुहत्था-दुपैरा धनुष से सेंदेरा किया था
जब उसने मेरे भाई को जबड़े में दबोच लिया था’’

बिरसी का आवेग
पहाड़ी नदी की तरह था
वह तड़प उठी —
‘‘ओह गोमके!
मुझे जल्दी बताओ
वह कौन है?
कहाँ से आया था?
मेरा ख़ून मेरी आँखों से टपक रहा है
मेरा धनुष तन गया है
मुझे उसका पता चाहिए
मुझे उसका सही ठिकाना चाहिए...’’

रीडा हड़म —
‘‘रुको बिरसी!
यह भावावेश घातक है
इसी आवेश ने
वीरों को असमय शहीद किया है
ऐसा करना अरणनीतिक क़दम होगा
यहाँ तात्कालिक प्रतिक्रिया का कोई भविष्य नहीं है
ऐसे ही हज़ारों सालों से
हमारी लड़ाई अधूरी रह गई है,

थोड़ा और धैर्य चाहिए
थोड़ा और चिन्तन
और वैचारिकता भी चाहिए
इसके बिना कहीं सहयोग नहीं है
कहीं समर्थन नहीं है
हम अधूरे ही होंगे, बिखरे हुए ही होंगे’’

बिरसी —
‘‘ओह हड़म!
मैं और क्या कर सकती हूँ
जब मेरी ही आँखों के सामने
मेरे परिजनों की लाशें बिछी हैं,
क्या करना चाहिए मुझे?
कहाँ है वह...?
........?’’

रीडा —
‘‘सुनो बिरसी!
सोचो कि अगर कोई तुम्हें कहे कि
तुम एक लड़की हो
और लम्बे संघर्ष में
तुम ख़ुद को कहाँ तक ले जा सकोगी...?’’

बिरसी — (चौंक कर माथा धुनते हुए)
‘‘यह क्या कह रहे हैं?
हम सुगना मुण्डा की बेटियाँ हैं
उनके बेटों के सामने बेटियाँ नहीं
उनके बेटों की संगी बेटियाँ
और आप यह...’’

रीडा —
‘‘तुम सही हो बिरसी
लैंगिक भेद पर
तुम्हारा यह आवेश
हमारी मातृसत्ता का ही अवशेष है
हाँ, लेकिन यह अवशेष है
जो हर बार हर तरफ़ से छीला जा रहा है
नोंच-नोंच कर निगला जा रहा है इसे
जनहित के लिए उठाए गए तुम्हारे क़दम पर
सबसे पहले तुम्हारे लोगों के बीच से ही उँगली उठेगी,

तुमने देखा है
अपने ही भाइयों को
जो हाट में आते हैं दिकु से बतियाते हैं
वह दिकु उनसे कहता है कि
‘कैसे भाई हो जो
तुम अपने बहनों को
वश में कर नहीं सकते
कैसे पति हो
जो पत्नी को सरेआम हँसने पर मना नहीं करते
सब के सब मर्द-जनाना
एक साथ बतियाते-गपियाते हैं
नीचता है यह, असभ्यता है यह’
और तुम्हारे ही भाई
अब तुम्हें देखने लगे हैं बेटियों की तरह
पितृसत्ता के विषाणु फैल रहे हैं
हमारे अन्दर यहाँ से वहाँ तक
संस्थागत और नीतिगत रूपों में,

जिसे तुम खोज रही हो
वह बाघ एक हमारे ही बीच है
और एक पहाड़ी के उस पार
दोनों का समझौता न हो
दीर्घ मुक्ति के लिए
इस पर बल देना ज़रूरी है’’

बिरसी —
‘‘पितृसत्ता के विषाणु फैल रहे हैं हमारे बीच
जो घातक हैं मुक्ति की राह में...?’’

रीडा —
‘‘हाँ बिरसी!
जब तक हमारी दुनिया
एक द्वीप की तरह थी
तब तक समता थी
हमारे गीत-अखाड़े
सबके लिए बराबर थे
तुम्हारे लिए गिति ओड़ारू था
धुमकुड़िया था, पेल्लो एड्पा था, घोटुल था
लेकिन जब से हमारी दुनिया में
घुसने लगी हैं सागर की बेख़ौफ़ लहरें
उसकी सत्तात्मक विषाणु हमारे बीच फैलने लगे हैं
कहीं पितृसत्ता, तो कहीं सामन्ती सत्ता,
कहीं धर्म की सत्ता तो कहीं पूँजी की सत्ता है
सम्पत्ति का वैभव और उसकी लालसा
मेहनत और उपज के ख़ून-पसीनों की
सामूहिकता को जीने वालों के बीच भी
महामारी की तरह पसर रही है

तुम्हारा हर क़दम
हमारे बीच ही बन रहे
सत्ता के अधिकारियों को चुनौती होगा
जो उन बाहरी समुद्री लहरों के साथ निजी समझौता कर रहे हैं’’

बिरसी —
‘‘ओह! तो कल के हमले का कोई एकमात्र सूत्र नहीं है
इसके पीछे एक पूरी संरचना है
एक पूरी व्यवस्था है
जो सत्ता के अनेक सूत्रों से बुनी है
आदमख़ोर बाघ एक अकेला हमलावर नहीं है
और उसका नहीं है कोई एक ही प्रयोजन ?’’

रीडा —
‘‘हाँ नुन्नी!
हमें चौपाया बाघों से कोई डर नहीं है
उनसे हमारी नस्लों को कोई ख़तरा नहीं है
हमारे बूढ़े, बच्चों और औरतों पर
ये कायराना हमला नहीं करते हैं
उनसे हमारी कोई शत्रुता नहीं है
ये सब तो हमारे सहजीवी हैं’’

बिरसी —
‘‘कितना कठिन समय है यह
कि हम सामने शत्रु को देख कर भी
उसको पूरी तरह पहचान नहीं सकते
उसके रूप को केवल किसी एक रूप से
समझ नहीं सकते
शत्रु देह का आकार भर नहीं
वह एक पूरा विचार भी है
एक पूरी व्यवस्था है
उसकी अ-सम दृष्टि है’’

रीडा —
‘‘हमें उन सब कारणों की पड़ताल करनी होगी
उन सभी सूत्रों के तह में पहुँचना होगा
जहाँ से यह अमानवीय रिसाव है
और इन सबके लिए
सबके साथ विचार चाहिए
विमर्श चाहिए
हमें बहस आमन्त्रित करनी होगी
ठीक वैसे ही
जैसे हमारे ओल गोमके
मेनास राम ओड़ेया ने
‘मतु रअः कटनि’ में बताया है कि
सेलेगुटू गाँव के ‘दुनुब’ में
सरदारी लड़ाई और उलगुलान के दिनों में
कैसे मुण्डाओं ने कई दिनों तक
‘कम्पनी तेलेंगा’ और ‘दिकुओं’ के साथ-साथ
नव-बिचौलिए मुण्डाओं के भी आरोप सर्वसम्मति से तय किए थे
और तब उन्होंने किया था
महान हूल, महान उलगुलान
ऐसे ही हुआ था
महान भूमकाल और महान मानगढ़
जिसे ‘सम्भ्रान्त’ और ‘सवर्ण’ लेखकों इतिहासकारों ने
जंगली लोगों का अराजक उपद्रव मात्र कहा।