सुग्गा उड़ी गइले / कुमार वीरेन्द्र
जब बेटियाँ ससुराल
चली गईं, चने-मटर का साग कौन खोंट
कर लाता, बहुएँ आँगन में बतियातीं और तरस-तरस रह जातीं
आजी सुनती, उसका भी मन ललक जाता, पास-पड़ोस में भी
कोई बेटी नहीं, जो कहने पर खोंटकर ला देती, कि
एक दिन, पता नहीं आजी को
क्या सूझा
मुझे लिए सीधे बधार में
पहुँच गई, और मेंड़ पर बैठा, बूँट के खेत में साग खोंटने लगी
कब तो नमक-अचार भी ले लिया था, मुझे भी साग साथ खाने को दिया, और ख़ुद भी खोंटते
खाती रही, जब रखवारी में बाँध से गुज़रते, छोटा बाबूजी ने देखा, अचरज में पड़ गए, कि माई
और बधार में साग खोंटने, कहने लगे कि कोई देखेगा तो का कहेगा, आजी ने तपाक
जवाब दिया, 'जो नतिया कुछ कहेगा, तनि नाम बताना, झोंटा
पकड़ के लोटे से कपार फोड़ दूँगी', छोटा बाबूजी
अब का कहते, चलते बने
आजी साग खोंटती रही, और
अपने भी खाती रही, मुझे भी मुट्ठी भर-भर देती रही, और गीत भी
गाती रही, 'सुग्गा उड़ी गइले अइसन, जिनिगिया सून भइल हो राम...', मैंने आजी को कभी गाते
नहीं सुना था, देख हुलस से थपड़ी बजाने लगता, जब आजी ने मोटरी-भर साग, खोंट लिया और
चलने को पास आई तो देखा, उसकी आँखें भीगी हैं, लाल-लाल हैं, पूूूछा तो कहा, 'पहिली
बार खेत-बधार में आई हूँ न, देख तो का बूूँट उपजा है, बचा तो अबकी
बार घर भर जाएगा', फिर तो हर बार यही सोचता
आजी की आँखें उपज देख
भीग जा रहीं
तब इतना छोटा था, कि यह सोच ही
नहीं पाया, जिस आजी को गाते किसी ने नहीं देखा, वह बधार में ही
साग खोंटते क्यों गाती है, और गाती है तो आँखें, भीग क्यों जाती हैं
लाल क्यों हो जाती हैं, क्या साँचहुँ यह उपज की ख़ुशी, कि
गीत में जिस सुग्गे को बार-बार दोहरा रही
वह जवानी में ही उड़ गए
कहीं बाबा तो नहीं !