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सुजर्न-दुर्जन / प्रकीर्ण शतक / सुरेन्द्र झा ‘सुमन’
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सुजन - लेथि सुजन परिमित स्व-हित, देथि अमित प्रतिदान
चरथि धेनु तृण घास नित दूधे करथि पन्हान।।1।।
नारिकेल मुज - डोरि वा लोह क तार क बानि
शिथिल होय, नहि सज्जनक बानि कदापि उबानि।।2।।
सुजन वचन-कटु तदपि पटु अन्त सुखद परिनाम
कटु कषाय दल, काँट बरु तरु फल - फूल ललाम।।3।।
दुर्जन - बधन पवन क करिअ यदि नभमे बिरचिअ रंध
सलिल भरिअ मरु मे तखन खलसँ निभ सम्बन्ध।।4।।
लहरि गनिअ सिन्धु क, कुसुम तोड़िअ गगन क गाछ
उपजाबथि मरु - पाथरो धरिअ दुर्जन क पाछ।।5।।
सुजन ओ दुर्जन - सुजन शरद दुहु दर्शनेँ नयन नलिन विकसैछ
खल हेमन्त दुरन्त जत हृदय सरोज गलैछ।।6।।
खल मुख वंदन गंजने, सुजनक डाँटो मिष्ठ
अहि मुख चुम्बित अंग हित भगतक चाटो इष्ट।।7।।