भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

सुदामा चरित / नज़ीर अकबराबादी

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

हर दम सुदामा याद करे कृष्ण मुरारी।
रहता है मस्त हाले दलिद्दर में भारी॥
और दिल में किसी आन नहीं सोच बिचारी।
करता है गुजर मांग के वह भीख भिखारी॥
हर आन दिल में कहता है धन है तू बिहारी॥ हरदम ॥1॥

देखो सुदामा तन पै तो साबुत न चीर है।
फेंटा बंधा है सिर के ऊपर सो भी लीर है॥
जामे के टुकड़े उड़ गये दामन धजीर है।
गर जिस्म उसका देखो तो दुर्बल हक़ीर<ref>तुच्छ, निर्बल</ref> है॥
सौ पेवंदों से सी सी के धोती को सुधारी॥ हरदम ॥ 2॥

जागह तवे की ठीकरा हैगा दराड़ दार।
लुटिया है एक छोटी सी सो भी है छेददार॥
लोहे की करछी तिसके भी फटे हुए किनार।
पेवन्ददार हांडी रसोई का यह सिंगार॥
पथरौटा फूटा तिसको भी थाती सी सुधारी॥ हरदम ॥3॥

छप्पर पै गौर कीजिये चलनी सा हो रहा।
तिसको भी घास पात से सारा रफ़ू किया॥
फूटी दिवार चारों तरफ़ जो खंडहर पड़ा।
स्यारों ने घर किया वहां पंछी ने घोंसला॥
अब ऐसी झोंपड़ी जो सुदामा ने सुधारी॥ हरदम ॥4॥

गोशे<ref>कोना</ref> के बीच अपने लिए ख़्वाबगाह<ref>सोने का स्थान</ref> करी।
पाये दिवार लकड़ी लगा खाट सी धरी॥
तिस पर है फर्श ओढ़ने को गेंहू की नरी।
सोवे हैं रात उस पै जपें मुंह से उठ हरी॥
साधुओं के बीच रह के उमर अपनी गुज़ारी॥ हरदम॥5॥

उनको जब इस तरह से हुआ दर्द दुख कमाल।
एक रोज दिल में स्त्री के यों हुआ ख़्याल॥
हैंगे क़दीम यार तुम्हारे मदन गुपाल।
जाओ उन्हों के पास करेंगे बहुत निहाल॥
तुमसे उन्हों से गहरी हमेशा है यारी॥ हरदम॥6॥

औरत की बात सुनके सुदामा दिया जवाब।
तुमको है ज़र की चाह, वह पानी का जो हुबाब<ref>पानी का बुलबुला</ref> ॥
कहने लगी जब स्त्री हमको कहां है ताब<ref>शक्ति</ref>।
जब देखा हाल आपका हमने निपट खराब॥
तब अर्ज़ की है जाने की, तक़सीर<ref>ख़ता, त्रुटि</ref> हमारी॥ हरदम॥7॥

उनपे मुकुट जड़ाऊ है और सिर मेरा खाली।
कुंडल है उनके कानों में मुझपै नहीं बाली॥
उनपै पीतंबर हैगा मैं कमली रखूं काली।
वे हैं बड़े तुम छोटे यों बोली वह घर वाली॥
क़दमों में उनके जाओं ख़बर लेंगे तुम्हारी॥ हरदम॥8॥

तेरी यह बात ख़ूब मैं समझा हूं नेकतर<ref>अत्यधिक भली</ref>।
अब हाल पर तू मेरे नहीं करती है नज़र॥
वे तीन लोकनाथ हैं मुझसे मिले क्यों कर।
फिर जन कहे हैं जाओ वहां तुम जो बेख़तर<ref>निर्भय</ref>॥
हर एक तरह से खड़ी समझावे है नारी॥ हरदम॥9॥

ज़र<ref>धन</ref> बिन धरम करम नहीं होता है कुछ यहां।
ज़र बिन नहीं मिले हैं आदर किसी मकां॥
ज़र से जो ऐस चाहो मिले हें जहां तहां।
तुम हरि के पास जाओ कहै कामिनी वहां॥
बख़्सेंगे ज़र बहुत सा तुम्हें वे गिरवरधारी॥ हरदम॥10॥

ज़र के लिए तो दिल में हज़ारों फ़िकर करें।
ज़र के लिए तो यार से हरगिज़ नहीं मिलें॥
इससे भला है मरना नहीं जाके कुछ कहैं।
उसही का नाम दिल में सदा अपने हम जपें॥
है विर्त अपनी मांगना हर रोज़ बज़ारी॥ हरदम॥11॥

देकर जवाब स्त्री कहती है वे हैं स्याम।
लाखों उन्होंने भगतों के अपने किये हैं काम॥
यह बात जाके पूछ लो नहीं ख़ास है, यह आम।
मानो हमारी सीख उधर को करो पयाम॥
इस बात से दिल में कभी हूजे नहीं आरी॥ हरदम॥12॥

वे जादोंनाथ हैंगे बड़े कृष्ण कन्हाई।
क्या लीजे भेंट घर में नहीं दे हैं दिखाई॥
जब स्त्री पड़ोस से एक तौफ़ा ले आई।
चादर में चौतह चावलों की किनकी बंधाई॥
फिर की है सुदामा ने जो चलने की तैयारी॥ हरदम॥13॥

ले बग़ल में बिरंज<ref>चावल</ref> सुदामा वहां चले।
रस्ते में शाम जब हुई एक शहर में बसे॥
वहां से द्वारिका रखा श्रीकृष्ण ने उसे।
सोते हुए सुदामा सबेरे जभी उठे॥
चारों तरफ़ से द्वारका सोने की निहारी॥ हरदम॥14॥

दिल में कहै सुदामा यह देखू हूं मैं क्या ख़्वाब।
जब कृष्ण जी नज़र पड़े करने लगा हिजाब<ref>लज्जा, छुपना</ref>॥
हरि ने जो अपने पास बुलाया वहीं शिताब<ref>शीघ्र</ref>।
चरनों को धोके सिरपै चढ़ाया सभों ने आब॥
दरसन को मिलके आई हैं रानी जो थीं सारी॥ हरदम॥15॥

खु़श होके सुदामा ने कृष्ण उठ लिपट गए।
दोनों के गले मिलते ही आनंद सुख भए॥
मिलते हैं कब किसी को ह्यां भागों से आ गए।
आदर से आप ले गए सिंहासन पर नए॥
जब छेम कुसल पूछी रही वह न नदारी॥ हरदम॥16॥

नहाने को उनके बास्ते पानी गरम किया।
भोजन अनेक तरह का तैयार कर लिया॥
स्नान ध्यान करके सुदामा ने जल पिया।
बागा तरह तरह का सुदामा को जब दिया॥
उनमें लगा है बादला गोटा और किनारी॥ हरदम॥17॥

श्रीकृष्ण बोले दो जो हमें दीना है भाभी।
यह बात सुन सुदामा ने गांठ और भी दाबी॥
हरि ने चला के हाथ वहीं खेंच ली आपी।
दो मुट्ठी मंुह में डालते धरती सभी कांपी॥
और तीसरी के भरते ही रुकमनि जी पुकारी॥ हरदम॥18॥

ताना दिया फिर वोंही कि देखे तुम्हारे यार।
आए हैं मांगते हुए ऐसे ख़राब ख़्वार॥
तिर्लोक दे चुकोगे कुछ अपना भी है सुमार।
श्रीकृष्ण बोले तुमको क्या अपना करो जो कार॥
यह मंगता नहीं हैगा सुन प्रान पियारी॥ हरदम॥19॥

ऐसे निहंग लाड़ले देखे कहीं कहीं।
ख़ुश है यह अपने हाल में परवाह इन्हें नहीं।
कुछ मिल गया तो खाया नहीं बिस्तरा ज़मीं।
एक दममें चाहे जो मिलें इनको है क्या कमी॥
ये जब के यार हैंगे कोई यार न थारी॥ हरदम॥20॥

श्रीकृष्ण ने विश्वकर्मा को बुलवा कहा पुकार।
सोने के महल ख़ूब सुदामा के हों तैयार।
एक दममें बाग़ो महल बनाए बहार दार।
कोठे किवाड़ खिड़कियां छज्जे बहारदार॥
चौबारे मीने बंगले जड़ाऊ हैं अटारी॥ हरदम॥21॥

फिर गुफ़्तगू<ref>बात-चीत</ref> में बात लड़कपन की चलाई।
वह दिन भी तुमको याद है कुछ या नहीं भाई॥
भेजा गुरू ने लकड़ी को मेंह आंधी ले आई।
मुट्ठी चने की बैठ वहां तुमने जो खाई॥
और हमने रात काटी है पी पानी वह खारी॥ हरदम॥22॥

कुछ दिन सुदामा कृष्ण के ह्वां द्वारका रहे।
पटरानी भाई बंधु सभी टहल में लगे॥
घर घर दिखाई द्वारिका सब संग हरि फिरे।
मांगी बिदा सुदामा ने चलने की कृष्ण से॥
सब आन के हाज़िर हुए जो जो थे दरबारी॥ हरदम॥23॥

पहुंचावने सुदामा को जादों चले सारे।
बलदेव कृष्ण दोनों भये पांवो नियारे॥
और संग साथ बली बड़े जोधा जो भारे।
नग्गर शहर सभी हुआ आ शहर दुआरे॥
होते विदा के सबने किया चश्मों को जारी॥ हरदम॥24॥

रुख़सत<ref>बिदा</ref> हुआ सुदामा वहां सेति जब चला॥
जब राह बीच आया हुआ सोच यह बड़ा॥
औरत कहेगी लाए हो क्या मुझको दो दिखा।
इस जिंदगी से मौत भली क्या कहेंगे जा॥
किस वास्ते वह रांड़ बहुत हैगी खहारी॥ हरदम॥25॥

यह सोच करते करते पुरी पास आ गई।
देखे तो घर न छप्पर आफ़त बड़ी भई॥
ने ब्राह्मनी निशान न घर क्या कहूं दई।
दीना हमें सो देखा करी घात यह नई॥
वह भी लिया यह मार अज़ब भीतरी मारी॥ हरदम॥26॥

फिरता महल के गिर्द सुदामा नज़र पड़ी।
देखें तो एक स्त्री कोठे पे है खड़ी॥
वह वहां से बुलावे सुदामा को हर घड़ी।
दिल में सुदामा कहै यह रानी है कोई बड़ी॥
जाऊं जो घर में मारेंगे दरबान हज़ारी॥ हरदम॥27॥

क्या बार-बार मुझको बुलाये है क्या सबब<ref>कारण</ref>।
शायद मुझे पसंद किया अपने दिल में अब॥
इतने में वह महल से उतर पास आई जब।
कहने लगी यह देखो विभव है उन्हीं की सब॥
माया यह हरि की देख हमें ऐसी बिसारी॥ हरदम॥28॥

फिर बांह पकड़ ले गई चौकी पे बिठाया।
खुशबू लगा उबटन मला ख़ूब न्हिलाया॥
ले टहलुए ने खूब पितंबर जो पहराया।
पूजा करी सुदामा ने हरि ध्यान लगाया॥
खि़दमत में चेरियां खड़ी ले हाथ में झारी॥ हरदम॥29॥

नित उठ सुदामा अपन करें येही खटकरम।
और पुन्न दान पूजा करें उसका जो धरम॥
हरि बिन नहीं तो जाने कोई उसका अब मरम।
कई दिन गुज़ारे इस तरह भोजन किये गरम॥
सोवे यह हरि के ध्यान में खा पान सुपारी॥ हरदम॥30॥

इस तरह जो ‘नज़ीर’ रहें हरि के ध्यान में।
यह भक्ति जोग हैगा कठिन कर धियान में॥
यह बात है लिखी हुई वेद औ पुरान में।
श्रीकृष्ण नाम ले ले हरेक आन आन में॥
बैकुंठ धाम पावें जो हैं हरि के पुजारी॥ हरदम॥31॥

शब्दार्थ
<references/>