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सुदामा चरित / नरोत्तमदास / पृष्ठ 2

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(सुदामा)

छत्रिन के पन जुद्ध- जुवा सजि बाजि चढै गजराजन ही ।
बैस के बानिज और कृसीपन, सुद्र को सेवन साजन ही ।
बिप्रन के पन है जु यही, सुख सम्पति को कुछ काज नहीं ।
कै पढिबो कै तपोधन है, कन मॉगत बॉभनै लाज नहीं ।।11।।

(सुदामा की पत्नी)

कोदोंए सवाँ जुरितो भरि पेटए तौ चाहति ना दधि दूध मठौती ।
सीत बितीतत जौ सिसियातहिंए हौं हठती पै तुम्हें न हठौती ।।
जो जनती न हितू हरि सों तुम्हेंए काहे को द्वारिका पेलि पठौती ।
या घर ते न गयौ कबहूँ पियए टूटो तवा अरु फूटी कठौती ।।12।।

(सुदामा)

छाँड़ि सबै जक तोहि लगी बकए आठहु जाम यहै झक ठानी ।
जातहि दैहैंए लदाय लढ़ा भरिए लैहैं लदाय यहै जिय जानी ।।
पाँउ कहाँ ते अटारि अटाए जिनको विधि दीन्हि है टूटि सी छानी ।
जो पै दरिद्र लिखो है ललाट तौए काहु पै मेटि न जात अयानी ।।13।।

(सुदामा की पत्नी)

पूरन पैज करी प्रह्लाद की , खम्भ सों बॉध्यो कपता जिहि बेरे ।
द्रौपदि ध्यान धरयो जब हीं, तबहीं पट कोटि लगे चहूँ फेरे ।
ग्राह ते छूटि गयो पिय, याहिं सो है निहचै जिय मेरे ।
ऐसे दरिद्र हजार हरैं वे, कृपानिधि लोवन कोर के हेरे ।।14।।

(सुदामा)

चक्कवे चौंकि रहे चकि से, जहॉ भूले से भूप मितेक गिनाऊँ ।
देव गंधर्व और किन्नर -जच्छ से,सॉझ लौं ठाढे रहैं जिहि ठाऊँ ।।15।।

(सुदामा की पत्नी)

भूले से भूप अनेक खरे रहैं , ठाढै रहै तिमि चक्कवे भारी ।
छेव गन्धर्व ओ किन्नर जच्छ से, रोके जे लोकन के अधिकारी ।
अन्तरजामी ते आपुही जानिहैं, मानो यहै सिखि आजु हमारी ।
द्वारिका नाथ के द्वार गए, सबतें पहिले सुधि लैहें तिहारी ।।16।।

(सुदामा)

दीन दयाल को ऐसोई द्वार है, दीनन की सुधि लेत सदाई ।
द्रोपदी तैं, गज तैं, प्रह्लाद तैं, जानि परी न विलम्ब लगाई ।
याहि ते भावति मो मन दीनता, जो निवहै निबही जस आई ।
जौ ब्रजराज सौ प्रीति नहीं, केहि काज सुरेसहु की ठकुराई ।।17।।

(सुदामा की पत्नी)

फाटे पट, टूटी छानि भीख मँगि -मँगि खाय,
बिना जग्य बिमुख रहत देव-पित्रई ।
वे हैं दीनबन्धु दुखी देखि कै दयालु ह्वै हैं,
दे हैं कुछ जौ सौ हौं जानत अगत्रई ।
द्वारिका लौ जात पिय! एतौ अरसात तुम,
कहे कौ लजात कौन-सी विचित्रई ।
जौ पै सब जन्म या दरिद्र ही सतायौ तोपै,
कौन काज आइहै, कृपानिधि की मित्रई ।।18।।

(सुदामा)

तैं तो कही नीकी सुनु बात ही की यह,
रीति मित्रई की नित प्रीति सरसाइए ।
मित्र के मिलते मित्र धाइए परसपर,
मित्र क जौ जेंइए तौ आपहू जेवाइए ।
वे हैं महाराज जोरि बैठत समाज भूप,
तहाँ यहि रूपजाइ कहा सकुचाइए ।
सुख-दुख के दिन तौ काटे ही बनैगे भूलि,
बिपति परे पैद्वार मित्र के न जाइये ।।19।।

(सुदामा की पत्नी)

विप्र के भगत हरि जगत विदित बंधुए
लेत सब ही की सुधि ऐसे महादानि हैं ।
पढ़े एक चटसार कही तुम कैयो बारए
लोचन अपार वै तुम्हैं न पहिचानि हैं ।
एक दीनबंधु कृपासिंधु फेरि गुरुबंधुए
तुम सम कौन दीन जाकौ जिय जानि हैं ।
नाम लेते चौगुनीए गये तें द्वार सौगुनी सोए
देखत सहस्त्र गुनी प्रीति प्रभु मानिहैं ।।20।।