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सुदामा पाण्डे का प्रजातंत्र (दो) / धूमिल
Kavita Kosh से
न कोई प्रजा है
न कोई तंत्र है
यह आदमी के खिलाफ़
आदमी का खुला सा
षड़यन्त्र है ।
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हर बार की तरह
तुम सोचते हो कि इस बार भी यह
औरत की लालची जांघ से
शुरू होगा और कविता तक
फैल जाएगा ।
बिल्ली का पंजा
चूहे का बिल है ।