सुधियों के दंश / राजेन्द्र वर्मा
एक जनम में एक मरण है,
अब तक यही सुना,
लेकिन हम तो एक जनम में
सौ-सौ बार मरे!
कागज़ पर सारी बातें तो उतर न पाती हैं
रही-सही बातें ही हमको फिर भरमाती हैं
भाष्यकार की भी अपनी सीमाएँ होती है
इसीलिए चुप्पियाँ हमें ज़्यादातर भाती हैं
सच्चा प्रेम निडर होता है,
अब तक यही सुना,
लेकिन हम तो अन्तरंग से
सौ-सौ बार डरे!
आँखें तो आँखें हैं, मन की बातें कहती हैं
कभी-कभी चुप रहकर भी वे सब कुछ सहती हैं
कहने को विश्राम मिला है, पर विश्राम कहाँ?
आठों प्रहार हमेशा वे तो चलती रहती हैं
मन भर आया, नैन भर आये,
अब तक यही सुना,
लेकिन सूखे नैन हमारे
सौ-सौ बार झरे ।
मन के आँगन की हरीतिमा किसे न भाती है ?
ऋतुओं के सँग लेकिन वह तो आती-जाती है
हमने तो हर मौसम में हरसंभव जतन किया
फिर भी जाने क्यों हमसे वह आँख चुराती है
सुधियों में खोने का सुख है,
अब तक यही सुना,
लेकिन सुधि ने घाव कर दिये
सौ-सौ बार हरे।।