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सुधि का दीपक / रामगोपाल 'रुद्र'

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मेरे मन-मंदिर में सुधि का दीपक जलता रहा रात भर।

एक सुनहला दीप कि जिसमें था भरपूर सनेह,
बाती जगी प्रेम की जगमग, जगमग तम का गेह;
मेरी चाहों के पतंग को दीपक छलता रहा रात भर।

धीमे-धीमे थी बयार चल रही थी ठंढी साँस,
भरे फूल-आँसू छलछल था आँखों का आकाश;
अपने सपनों की समाधि पर दीपक बलता रहा रात भर।

ऐसी एक प्यास, पानी में जैसे प्यासी मीन,
जीवन की लौ लगी जगी थी सपनों में लौलीन;
अपने प्रियतम के साँचे में दीपक ढलता रहा रात भर।

अपना तो यह भाग कि होकर सत्य हो गया, झूठ,
प्रिय तो क्या, प्रिय का सपना भी आज गया है रूठ;
सपना सच हो जाय, हठीला दीप मचलता रहा रात भर।