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सुधुर-मधुर विचित्र है... / कालिदास
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सुधर-मधुर विचित्र है जलयन्त्र मन्दिर और गृहो में
चन्द्रकान्ता मणि लटकती, झूलती वातायनों में
सरस चन्दन लेप कर तन ग्लानि हरने को निरत मन,
व्यस्त है सब, लो प्रिये ! अब हँस उठा है नील निस्वन,
तिमिर हर कर, अमृत निर्झर शान्त शशधर मुसकराया,
प्रिये ! आया ग्रीष्म खरतर !