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सुनता कौन है ? / मधु आचार्य 'आशावादी'

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सुना था
कहते हैं लोग अब भी-
दीवारों के भी कान होते हैं
इसलिए बेहतर है
हर समय सोच-समझ कर बोलना ।

पिछले काफी वर्षों से
राजधानी में जनता
चिल्लाकर
मंहगाई-मंहगाई कर रही है
किसान रो रहे हैं-
अपनी फसलों की खातिर....

सत्ता-पक्ष सब देखता
और सुनता भी है
करता वह केवल बस तेरी-मेरी।
कान तो उनके हैं ही
फिर वे सुनते क्यों नहीं !
शोर कर
जबरदस्ती उनको
सुनानी पड़ती है - आम बातें


दीवारें तो सुन लेती हैं
गुप-चुप्प पर्दों में हुई बातें
फिर मनुष्य किसे मानें
दीवारों को
या सत्ता पक्षकारों को !

अनुवाद : नीरज दइया