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सुनरहे हैं न आप / संतोष श्रीवास्तव
Kavita Kosh से
कल रात भर
समन्दर मुझे पुकारता रहा
दबे पाँव उसकी आहट
मेरे ज़ेहन से टकराती रही
सुबह देखा तो बस
दूर तलक पानी का विस्तार
कहाँ है इस आवाज़ की शक़्ल
जो रात भर मुझे
अपने पाश में
जकड़ती चली गई थी
मैं देख रही हूँ अनझिप
पानी पर उमड़ती लहरें
जिस पर लहरा रहा
मेरा, आपका, हम सबका भविष्य
क्योंकि सत्ता भी बेशक़्ल है
उसकी भयानक आवाज़
सुन रहे हैं न आप ???