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सुनसान / नेमिचन्द्र जैन
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भारी सुनसान को लाचार लपेटे कस के
आज बाँहें किसी सपने में मौन डूबी हैं
होंठ रह जाते हैं बेचैन तड़प के यों ही
उन पे गाने को कोई गीत भी बाकी न रहा
अधखुले रूप की जलती हुई दो नोकें-सी
जी में रह-रह के लगातार चुभी जाती हैं
दिल के राही को आज राह का कुछ होश नहीं
एक निर्जन में बियाबान में खोया-सा है
सुधियाँ उड़ते हुए पतझर के विवश पत्तों-सी
मन के आकाश में झरती ही चली जाती हैं... ।
रूप की इस अजब रात में अब चाँद निकल आया है
आज मन को किसी आश्वास भरी गोद में सो जाने दो ।
(1948 में इलाहाबाद में रचित )