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सुनहरी यादों के जंगल में खो गयी होगी / रमेश 'कँवल'

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सुनहरी यादों के जंगल में खो गर्इ होगी
वो गुज़रे लम्हों की चौखट पे सो गर्इ होगी

मैं अपनी ज़िद के दरीचे से झांकता ही रहा
अना1 के मोड़ से वापस वो हो गर्इ होगी

दराज़ बाहों के पिंजडे़ में तड़फड़ाती हुर्इ
वो देवदासी दुपटटा भिगो गर्इ होगी

ये सोचकर कि इक स्पर्श में मिटा देगा
वो एक मौज किनारा डुबो गर्इ होगी

मुझे भी नीला समुंदर निगल रहा है 'कंवल’
वो चांदनी भी जज़ीरों2 में खो गर्इ होगी


1.अहं, अंहकार 2. द्वीप, टापू