भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

सुना भी कभी माजरा दर्द-ओ-ग़म का किसी दिलजले की ज़बानी कहो तो / साइल देहलवी

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

सुना भी कभी माजरा दर्द-ओ-ग़म का किसी दिलजले की ज़बानी कहो तो
निकल आएँ आँसू कलेेजा पकड़ लो करूँ अर्ज़ अपनी कहानी कहो तो

तुम्हें रंग-ए-मय मर्ग़ूब क्या है गुलाबी हो या ज़ाफ़रानी कहो तो
बुलाए कोई साक़ी-ए-हूर-पैकर मुसफ़्फ़ा कशीदा पुरानी कहो तो

तमन्ना-ए-दीदार है हसरत-ए-दिल कि तुम जल्वा-फ़रमा हो मैं आँखें सेकूँ
न कह देना मूसा से जैसे कहा था मिरी अर्ज़ पर लन-तरानी कहो तो

वफ़ा-पेशा आशिक़ नहीं देखा तुम ने मुझे देख लो जाँच लो आज़मा लो
तुम्हारे इशारे पे क़ुर्बानी कर दूँ अभी माया-ए-ज़िंदगानी कहो तो

कहाँ मैं कहाँ दास्ताँ का तक़ाज़ा मिरे ज़ब्त-ए-दर्द-ए-निहाँ का है कसना
फिर इस पर ये ताकीद भी है बराबर न कहना पराई कहानी कहो तो

मिरे नामा-ए-शौक़ की सत्र में है जगह इक जो सादा वो मोहमल नहीं है
मैं हो जाऊँ ख़िदमत में हाज़िर अभी ख़ुद बताने को उन के मआनी कहो तो