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सुना हुआ / प्रतिभा किरण

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ठण्डे पावों को
शरीर के भार से दबाए बैठी हूँ
जलाए बैठी हूँ
अनिच्छा से बनी सब्ज़ी की कड़ाही

लालटेन की रोशनी में पढ़े पिता
भूल रहे हैं
एलईडी में वर्णमाला
सो रहे हैं थाली परोसने तक के समय में

माँ बीन-बिचार रही है
कंकड़-पत्थर गेहूँ में
छाँट रही है मन ही मन
मेरे लिए लड़के

बातों के कलपुर्जे उखड़े हैं
बात फिर भी होती है
“रोटी लाओ"
"ला रही हूँ"

आठ साल तक मेरे साथ
गिट्टियाँ छुपाता लड़का
कल कुएँ में कूद कर मर चुका है
मेरी गिट्टी आज तक ग़ायब है

बूढ़ी होती दीवारों को
अब कम सुनाई देने लगा है
फिर भी हम सुन रहे हैं
एक-दूसरे का दरकना