सुना है विलाप पुष्प का / परिचय दास
सुना है विलाप पुष्प का, दुःखी स्वर बसंत का
रात्रि के मध्यभाग में
निरपराध साधनहीन अनेक लोग
मिटा नहीं अंधकार उनका आज तक
देख रहें हैं निर्निमेष मुक्त आकाश में
आज सारी स्वीकृतियाँ मिथ्या
इस युग की इसे ग्लानि में यद्यपि तुम्हारी यहाँ संभावना है
सभी अभागों के मृत्यु-भीत-आक्रंदन
अंतिम प्रहर की विकट चीख
निर्धनता घुली मिली-सी उसके रक्त-मांस में
आदमी को काँप उठते देख दूसरा आदमी स्थिर रहता
नाचतीं, अभिनय करतीं हृदय की वज्र आकांक्षाएँ
खून से लथपथ चितकबरी ज़मीन पर चलती हैं
सांद्र सात्विक द्युति फैली भले ही हो
धवल प्लावन में कविता के
परंतु आँसुओं की उदास लिपि में
कौन कहता है कि कविता मात्र शब्दों में लिखी जाती है!
शब्दकोशों में भी जो मिलते नहीं, ऐसे रंगों को,
पत्तों में समोकर
उन्हें ले जाना होता है दिग्-दिगंतों में
बातें हैं- अनगिनत निस्सीम, कहाँ से शुरू हो संवाद
हादसों के चक्रवात में नई फसल की आस
भूख की चीख ना उम्मीदी के बाद
भीतर ही भीतर घुटता हुआ, अपने को मरने नहीं दिया
यंत्रणाओं के तीखे टुकड़े आँखों में समाए हुए
प्रश्नों की उठती हैं बौछारें भविष्य के संकल्प की धरती पर
बचाव करती अपने अस्थित्व के समशीतोष्ण मर्म रव का
यह भी कि मतदान केंद्र के बगल के रास्ते पर
थोड़ी आड़ देखकर कामकाजी औरतें करती हैं पेशाब मजबूरी में
निर्मम व भीषण शोषण के चक्र के नीचे
असहनीय यंत्रणा से कराहती हुई
जहाँ ‘लोकतंत्र’ के ‘रक्षक’ संविधान की कसमें खाकर
उन पर ‘नजरें’ रखते हैं!
दुःख का कराह एक तरह का धिक्कार है
दुष्काल में कंकाल का संकेत बनाकर
समय के तापमान को महसूस करनाः
हाँफती अर्थव्यवस्था की फँटास पर अंगुली रखना है
सिर्फ अनुकंपा के बल पर अज़िंदगी नहीं चलाई जा सकती
गरीबी का कोई एक कारण नहीं, जबकि.
मरने के लिए असमानता से दहशत खाकर ढेर सारे
सूत्र निकल आते हैं
धिक्कार असमानता!
देश की रीढ़ पर अवलंबित निस्तब्धता:
एकलता, आक्रोश, करुणा, धिक्कार!
सभ्यता की प्रगति का इतिहास:
अधखुले किवाड़ की ज़ंजीर से झूलता रहता है
जहाँ एक दाना अन्न नहीं है!
है न विपर्यय या विरोधाभास!
इसीलिए इसमें देह की सजीवता और मन की प्रफुल्लता
ढूँढने से छिल जाती हैं अंगुलियाँ
और गहरा विस्फोट होता है आत्मा के विन्यास में!