राग बिलावल
सुनि-सुनि री तैं महरि जसोदा । तैं सुत बड़ौ लगायौ ।
इहिं ठोटा लै ग्वाल भवन मैं, कछु बिथर्यौ कछु खायौ ॥
काकैं नहीं अनौखौ ढोटा, किहिं न कठिन करि जायौ ।
मैं हूँ अपनैं औरस पूतै बहुत दिननि मैं पायौ ॥
तैं जु गँवारि ! भुज याकी, बदन दह्यौ लपटायौ ।
सूरदास ग्वालिनि अति झूठी, बरबस कान्ह बँधायौ ॥
भावार्थ :-- (गोपी कहती है -) `सुनो, सुनो, व्रजरानी यशोदा ! तुमने अपने पुत्रको बहुत दुलारा (जिससे यह बिगड़ गया ) है । (तुम्हारे) इस बालक ने गोपबालकों को (साथ)लेकर तथा (मेरे) भवन में जाकर वहाँ कुछ गोरस ढुलकाया तथा कुछ खाया । किसका बालक अनोखा (निराला) नहीं होता, किसने बड़े कर्ट से उत्पन्न नहीं किया है मैंने भौ तो अपने गर्भ से (यह) पुत्र बहुत दिनों पर पाया है (अर्थात् मेरे भी तो बड़ी अवस्था में पुत्र हुआ; किंतु इतना अनर्थ तो वह भी नहीं करता )।' सूरदास जी कहते हैं - व्रजरानी ने उसे उलटे डाँटा -) `तू भी गँवार (झगड़ालू) है इस मेरे लाल का हाथ पकड़कर तूने ही इसके मुख में दही लिपटा दिया है । ये गोपियाँ अत्यन्त झूठ बोलने वाली हैं । झूठ-मूठ ही इन्होंने कन्हाई को बँधवा दिया ।'