सुनीं कन्हाई / जलज कुमार अनुपम
हे स्वामी
करुना के सागर!
भरल रहे हियरा में हरदम
भक्ती के, बिसवास के गागर !
बदल गइल परिभासा बहुते
नेह-त्याग के
गीत-राग के
मतलब के दलदल में सगरो
सगरी दुनिया धँसले लउके
आदमियत बा सुसुके लागल
बुतल जात बा दियरी, देखीं
सत् अंजोर के,
परोपकार के
सत्य-ज्ञान के
स्वाभिमान के !
भइल जात बा लोग जनावर !
अब ना बाँची
पुरखन के उपराजल संस्कृति
अरजित ग्यान
संपत नेह छोह के बान्हल दुनिया
धरम करम सगरी बह जाई!
हे सुख-दाई,
कृष्ण कन्हाई !
समय चक्र के
देखल-भोगल
हमनी के मजबूरी बा
या समझीं की मगरुरी बा
रउरा काथी के मजबूरी ?
हे स्वामी !
राउर धेयान जरूरी बा
रउआ से हम अतने कहीं
धार कलम के दे दीं तनी
जोत तनी रोसनाई के दीं
जे कुछ लिखीं, जे कुछ रचीं
जगमग करे वाला होखे
अनहारिया जे पसरल बाटे
ओकरा सोखे वाला होखे ।